प्रसाद और निराला भारतीय संस्‍कृति बोध के प्रतीक – कुलपति प्रो. रजनीश कुमार शुक्‍ल

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B S Mirge

वर्धा 25 फरवरी 2021 (इंडिया रिपोर्टर लाइव)। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के साहित्य विद्यापीठ द्वारा संचालित ‘हमारे साहित्य निर्माता’ शृंखला के अंतर्गत ‘संस्कृति बोध का साहित्य : जयशंकर प्रसाद एवं सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के विशेष संदर्भ में’ विषय पर दो दिवसीय (19-20 फरवरी 2021) राष्ट्रीय वेबिनार की अध्यक्षता करते हुए दर्शनशास्त्र के निष्‍णात विद्वान एवं विश्‍वविद्यालय के कुलपति प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल ने कहा कि प्रसाद और निराला के संदर्भ में संस्कृति-बोध के साहित्य पर चर्चा एक तरह से संपूर्ण भारतीयता पर चर्चा है। प्रसाद और निराला के काव्य को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की जो चेतना विकसित हो रही थी, उसकी छाया में देखना पड़ेगा । हम भूमि पुत्र हैं और भूमा के आकांक्षी हैं। उन्‍होंने कहा कि प्रसाद और निराला भारतीय संस्‍कृति-बोध के प्रतीक हैं।

इस अवसर पर ‘समन्वय’ पत्रिका के संपादक, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष प्रो. सदानंद प्रसाद गुप्त ने कहा कि पूरी भारतीय सांस्कृतिक अस्मिता प्रसाद और निराला की कविताओं में बोलती दिख रही है । जिस साहित्य में संस्कृति का स्वर नहीं बोलता है, उस साहित्य का स्थान विश्व साहित्य में नहीं हो सकता है । मुंबई विश्वविद्यालय के हिंदी-विभाग के अध्यक्ष प्रो. करुणाशंकर उपाध्याय ने प्रसाद और निराला की समानता की चर्चा की । उन्‍होंने कहा कि प्रसाद ने अपनी रचनाओं में शैव-दर्शन को आधार बनाया, जो पूर्ण रूप से विरुद्धों का सामंजस्य है । विरुद्धों के इसी सामंजस्य के कारण शिवत्व पैदा होता है । दोनों ही आत्मचेतस है ।

केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के उपाध्यक्ष प्रो. अनिल जोशी ने कहा कि निराला, प्रसाद, महादेवी और पंत ये चारों भारतीय सांस्कृतिक स्तंभ का वो बोध है, जिसके ऊपर हिंदी कविता या हिंदी साहित्य खड़ा है । प्रसाद के नाटक घटनाओं के नहीं बल्कि चरित्रों के है ।

कालीकट विश्वविद्यालय के प्रो. प्रमोद कोवप्रथ ने कहा कि संस्कृति-बोध की चर्चा अपनी ओर देखने की बात करती है । ‘वर दे, वीणावादिनी वर दें’ कविता के माध्यम से रूढ़ियों और अंधविश्वास के खिलाफ एक विद्रोह की बात तो ‘जागो फिर एक बार’ के माध्यम से विश्व मानवतावाद और जागृति की बात और ‘तुलसीदास’ के माध्यम से सांस्कृतिक ह्रास की बात उन्होंने अपने वक्तव्य में की ।

हिंदी साहित्य के वरिष्‍ठ आलोचक प्रो. विजयबहादुर सिंह ने ‘संस्कृति-बोध के संदर्भ में प्रसाद और निराला’ विषय पर वक्‍तव्‍य देते  हुए कहा कि प्रसाद और निराला संस्कृति और संस्कृति-बोध को आसान उदाहरणों से स्पष्ट करने के साथ ही संस्कृति-बोध की विडंबना की भी बात करते हैं । उन्होंने धर्मपाल महोदय की पुस्तक ‘भारतीय मानस चित्त और काल’ की भी चर्चा की । राष्ट्रकवि गुप्त की एक पंक्ति ‘हम कौन थे’ का संदर्भ लेते हुए उन्होंने कहा कि इसके जवाब में गुप्त जी और निराला ने अपना पूरा साहित्य लिख दिया । उन्होंने ‘कामायनी’ को भारतीय संस्कृति के सुलह का काव्य बताया । ‘चंद्रगुप्त’ नाटक और ‘कामायनी’ में एक जगह हुए ‘भूमा’ के जिक्र के संबंध में विस्तृत चर्चा के साथ उन्होंने कहा कि जो कुछ धरती पर है, वह मरणशील है, इसलिए भूमा में नहीं है । जो अमरणशील है, वह भूमा में है ।

प्रो. कृष्ण कुमार सिंह ने विषय प्रस्ताविकी में जयशंकर प्रसाद और सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ को छायावाद के प्रवर्तक, उन्नायक और विधायक दैदीप्यमान कवि कहा।  प्रसाद और निराला के साहित्‍य में चिन्मय-चिंतन धारा की झलक आदि से अंत तक दिखाई पड़ती है । ‘राम की शक्तिपूजा’ की पंक्तियों का संदर्भ देते हुए उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृति की धारा की चर्चा राम के बगैर पूरी नहीं हो सकती ।

कार्यक्रम का संचालन बेबीनार के संयोजक साहित्य विद्यापीठ के अधिष्ठाता प्रो. अवधेश कुमार ने किया । बेबीनार का आरंभ डॉ. जगदीश नारायण तिवारी द्वारा मंगलाचरण और कुलगीत से किया गया। बेबीनार का सह-संयोजन दूर शिक्षा निदेशालय के निदेशक प्रो. हरीश अरोड़ा ने किया ।

वेबिनार के दूसरे दिन की अध्‍यक्षता विश्‍वविद्यालय के प्रतिकुलपति प्रो. हनुमानप्रसाद शुक्‍ल ने की।  उन्‍होंने कहा कि काव्य विधा का वाचक है  साहित्य । भारतीय संस्कृति में कालविहीन कर्म होता ही नहीं है । इसलिए भारत का प्रत्येक व्यक्ति कलाकार है । काव्य हमारे यहाँ मंत्र हैं और कवि स्रष्टा ऋषि है । उन्होंने प्रसाद के ‘शेर सिंह का शस्त्र समर्पण’, ‘अशोक की चिंता’ आदि कविताओं का उल्लेख अपने उद्बोधन में किया ।

हिंदुस्तानी एकेडमी, प्रयागराज के अध्यक्ष प्रो. उदय प्रताप सिंह ने कहा कि लोकजीवन की सजग चेतना ही संस्कृति है । साहित्य संस्कृति का संवाहक होता है । उन्होंने छायावाद को अभिनव संस्कृति का कालखंड बताया ।

जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय के आचार्य प्रो. रसाल सिंह ने निराला को राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना का कवि बताया । जयशंकर प्रसाद के नाटक ‘चंद्रगुप्त’ में अलका द्वारा गाए जानेवाले गीत ‘हिमाद्रि तुंग शृंग से’ में छायावाद की मूल चेतना निहित होने की बात उन्होंने कही ।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के डॉ. मलखान सिंह ने छायावादी साहित्य को व्यक्ति एवं समाज निर्माण करने वाला साहित्य कहा । उन्होंने बताया कि भारतीय संस्कृति प्रकृति को स्वतंत्र सत्ता मानने वाली तथा मानवीय चेतना को प्रखर बनाने वाली संस्कृति है । इस क्रम में उन्होंने जयशंकर प्रसाद और निराला को भारतीय मूल्यों के बीज बोने वाला कवि कहा ।

काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के सेवानिवृत्त आचार्य प्रो. वशिष्ठ नारायण त्रिपाठी ने कहा कि छायावादी साहित्यकारों ने भारतीय संस्कृति को दृढ़ आधारभूमि प्रदान की । संस्कृति बोध का साहित्य पर बात करते हुए प्रो. त्रिपाठी ने भारतेन्दु तथा मैथिलीशरण गुप्त का भी उल्लेख किया ।

दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. पूरनचंद टंडन ने प्रसाद के नाटकों पर रंगमंचीयता का अभाव के आक्षेप लगने पर उसके प्रत्युत्तर स्वरूप प्रसाद के ही कथन का उल्लेख किया, जिसमें वे कहते हैं कि मेरे नाटक इक्के-तांगे वालों के लिए नहीं है । साथ ही उन्होंने षोडश संस्कारों का उल्लेख प्रसाद के काव्यों में होने की बात कही। जयशंकर प्रसाद के भारतीय भारतीय भौगोलिक संरचना के ज्ञान की ओर भी हम सभी का ध्यान आकृष्ट कराया। उन्होंने जयशंकर प्रसाद के माध्यम से भारतीय संस्कृति के जीवन-शैली की महत्ता का उल्लेख किया । साथ ही निराला की ‘कुकुरमुत्ता’ कविता का भी जिक्र किया । समन्वयक की भूमिका निभा रहे बेबिनार के सह-संयोजक प्रो. हरीश अरोड़ा ने आभार ज्ञापित किया । 

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