
इंडिया रिपोर्टर लाइव
नई दिल्ली 03 फरवरी 2023। सुप्रीम कोर्ट ने बृहस्पतिवार को कहा कि मूल्यवृद्धि के दुष्प्रभावों से निपटने के लिए सामान्य हित में वेतन में समय-समय पर संशोधन करना सार्वजनिक नियोक्ताओं का दायित्व है। शीर्ष अदालत ने नियोक्ताओं को याद दिलाई कॉस्ट ऑफ लिविंग। जस्टिस अनिरुद्ध बोस और एस रवींद्र भट की पीठ ने कहा कि राज्य और सार्वजनिक नियोक्ताओं का दायित्व है कि वे सार्वजनिक हित के एक उपाय के रूप में मूल्यवृद्धि के दुष्प्रभाव के कारण रहने की लागत (लिविंग ऑफ कॉस्ट) में वृद्धि को समझें। क्योंकि इसके परिणामस्वरूप वास्तविक वेतन में गिरावट आती है। समय-समय पर इस दायित्व का निर्वहन किया जाना चाहिए। फिर भी इस तरह के वेतन संशोधन कब किए जाने हैं और किस हद तक संशोधन किए जाने चाहिए, इसके लिए कोई सीधा या सामान्य फॉर्मूला नहीं हो सकता है।
पीठ ने कहा, वेतन संशोधन की सीमा क्या होनी चाहिए, निःसंदेह ऐसे मामले हैं जो कार्यकारी नीति निर्माण के दायरे में आते हैं। साथ ही इसमें एक बड़ा जनहित शामिल है, जो सार्वजनिक अधिकारियों और कर्मचारियों के वेतन में संशोधन को प्रेरित करता है। अच्छी सार्वजनिक नीति की अपेक्षा केंद्र, राज्य सरकारों और अन्य सार्वजनिक नियोक्ताओं से की जाती है। इनके जरिये समय-समय (आमतौर पर एक दशक में एक बार, पिछले 50 वर्षों या उससे अधिक के लिए) पर वेतन संशोधन किया गया है।
यह था मामला
सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र राज्य वित्तीय निगम पूर्व कर्मचारी संघ व अन्य की अपील को स्वीकार कर लिया। इसमें राज्य सरकार पर पांचवें वेतन आयोग की सिफारिशों के लाभ नहीं देने का आरोप लगाया गया था।
रोजगार के प्रति प्रतिबद्धता की भावना को मिलता है बढ़ावा
पीठ ने कहा, वेतन संशोधन अन्य उद्देश्यों को भी पूरा करता है, जैसे कि सार्वजनिक रोजगार के प्रति प्रतिबद्धता और वफादारी की एक नई भावना को बढ़ावा देना। इस तरह के संशोधन लोक सेवकों को रिश्वत लेने की लालच से रोकने के लिए हैं।
अनुच्छेद 43 का भी दिया हवाला
पीठ ने संविधान के अनुच्छेद- 43 का भी हवाला दिया जो राज्य को यह सुनिश्चित करने के लिए बाध्य करता है कि सभी श्रमिकों, औद्योगिक या अन्य को एक उचित वेतन प्रदान किया जाए और एक उचित जीवन स्तर सुनिश्चित किया जाए।